चोटी की पकड़–8

तीन


ब्याह के बाद जागीरदार राजा राजेंद्रप्रताप कलकत्ता गए।

 आवश्यक काम था। जमींदारों की तरफ से गुप्त बुलावा था। सभा थी।

मध्य कलकत्ता में एक आलीशान कोठी उन्होंने खरीदी थी। ऐशो-इशरत के साधन वहाँ सुलभ थे, 

राजा-रईस और साहब-सूबों से मिलने का भी सुभीता था, 

इसलिए साल में आठ महीने यहीं रहते थे। परिवार भी रहता था। राजकुमार इस समय वहीं पढ़ते थे। 

ये अपनी बहन से बड़े थे, पर अभी ब्याह न हुआ था। यह कोठी और सजी रहती थी।

बंगाल की इस समय की स्थिति उल्लेखनीय है। उन्नीसवीं सदी का परार्द्ध बंगाल और बंगालियों के उत्थान का स्वर्णयुग है। 

यह बीसवीं सदी का प्रारंभ ही था। लार्ड कर्जन भारत के बड़े लाट थे। कलकत्ता राजधानी थी। 

सारे भारत पर बंगालियों की अंग्रेजी का प्रभाव था। संसार-प्रसिद्धि में भी बंगाली देश में आगे थे। 

राजा राममोहनराय की प्रतिभा का प्रकाश भर चुका था। प्रिंस द्वारकानाथ ठाकुर का जमाना बीत चुका था।

 आचार्य केशवचंद्र सेन विश्वविश्रुत होकर दिवंगत हो चुके थे।

 श्रीरामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद की अतिमानवीय शक्ति की धाक सारे संसार पर जम चुकी थी। 

ईश्वरचंद्र विद्यासागर की बंगला, माइकेल मधुसूदनदत्त के पद्य, बंकिमचंद्र चटर्जी के उपन्यास और गिरीशचंद्र घोष के नाटक जागरण के लिए सूर्य की किरणों का काम कर रहे थे। 

घर-घर साहित्य, राजनीति की चर्चा थी। बंगाली अपने को प्रबुद्ध समझने लगे थे। 

अपमान का जवाब भी देने लगे थे। 

अखबारों की बाढ़ आ गई थी। रवींद्रनाथ के साहित्य का प्रचंड सूर्य मध्य आकाश पर आ रहा था। 

डी. एल. राय की नाटकीय तेजस्विता फैल चली थी। 

सारे बंगाल पर गौरव छाया हुआ था। 

परवर्ती दोनों साहित्यिकों से लोगों के हृदयों में अपार आशाएँ बँध रही थीं। दोनों के पद्य कंठहार हो रहे थे। 

जातीय सभा कांग्रेस का भी समादर बढ़ गया था। उस में जाति के यथार्थ प्रगति के भी सेवक आ गए थे।

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